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हमारी गतिविधियां

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ज्योतिषशास्त्र

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हमारे प्राचीन ऋषिमुनियों ने उनके तपोबल, अभ्यास एवं अवलोकन के माध्यम से मानव को सहायक हो सके ऐसे कई सारे शास्त्रों की रचना की है। जैसे वेद, उपनिषद, योगशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र आयुर्वेदशास्त्र एवं वास्तुशास्त्र आदि। उसके अलावा पुराणों की रचना मानव कल्याण के लिए एक अमूल्य भेंट है। लेकिन बहुत ही दुःख की बात यह है कि हमारे ऋषिमुनियों द्वारा रचित विशिष्ट ज्ञान पर आधारित शास्त्रों का आज के कथित गुरुओं के द्वारा अधूरे ज्ञान के साथ व्यावहारिक व्यापारीकरण हो रहा है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भारत ज्ञान और संस्कृति से प्रज्वलित था। हमारे ऋषिगण ने अपने तपोबल के द्वारा यह ज्ञान प्राप्त किया था। पश्चिमी विज्ञान और खगोलशास्त्र का विकास हुए अभी तक र-पाँच सदियाँ हुई हैं, जबकि भारत में तो हजारों वर्ष पूर्व से ग्रहों, नक्षत्रों, धूमकेतुओं एवं बिना दुष्प्रभाव की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद एवं कई सूक्ष्म संशोधन किए जा चूके हैं। हमारे प्राचीन ऋषिमुनियों के द्वारा किये हुए ये संशोधन आज भी अचल और सच्चाई की कसौटी पर हिक सकें उतने सक्षम हैं।

प्राचीन ऋषिमुनियों द्वारा हमें दिये गए शास्त्रों के उपहार में ज्योतिषशास्त्र जीवन जीने के लिए एवं आत्मोद्धार करने के लिए बहुत ही उपयोगी हो सकता है। ज्योतिशास्त्र किसी भी मनुष्य को उसकी मर्यादा एवं उसकी शक्ति का दर्शन कर सकता है। ज्योतिशास्त्र मनुष्य को अपने आंतरकि मूल्यांकन में अद्भुत रुप से सहायक हो सकता है इसलिए ज्योतिषशास्त्र को वेद का छठा अंग कहा गया है। उसे सभी शास्त्रों का 'नेत्र' कहा गया है।

हमारे प्राचीन ऋषिमुनियों के द्वारा रचे गये इस ज्योतिष शास्त्र को आज के कई बुद्धिजीवी अंधश्रद्धा, ढोंग या वहम समझते हैं किंतु आयुर्वेद जैसे सचोट शास्त्र को आज के कई बुद्धिजीवी अंधश्रद्धा, ढोंग या वहम समझते हैं किंतु आयुर्वेद जैसे सचोट शास्त्र के रचयिता ऋषिमुनियों ने क्या ज्योतिष शास्त्र को सत्य की कसोटी पर खरा उतारे बिना ही खोज की होगी ? सचमुच ज्योतिषशास्त्र भी एक अद्भुत और विशुद्ध विज्ञान ही है। लेकिन आधुनिक युग में धन के कारण यह शास्त्र बदनाम हो रहा है। इस शास्त्र के प्रति नकारात्मक अभिगम को छोड़कर सकारात्मक अभिगम अपनाने से ही सत्य की खोज हो सकती है। इसलिए वैज्ञानिक पद्धति से इस शास्त्र का संशोधन होना चाहिए। ग्रहों का असर प्राणीसृष्टि, वनस्पतिसृष्टि और कुदरत के सभी परिबलों पर होती है, यह साबित हुआ है लेकिन उसका प्रभाव कब, किस प्रकार और कितनी मात्रा में होगा ? यह संशोधन का विषय है।

हम समझ सकते हैं कि, कुदरत में स्थित महान आकर्षक शक्ति हमारे जीवन पर प्रभाव डाल रही है। हमारे चारों ओर सतत सानिध्य में रहने वाले तत्व जैसे पृथ्वी, जल, आकाश, वायु अग्नि, आकाश में निरंतर घूम रहे पिंडो, नक्षत्रों, तारों आदि की सतत बहती रहती ऊर्जा हमारे शरीर एवं मन के ऊपर कितना प्रभाव हो सकता है ? यह जानने का शास्त्र मतलब ज्योतिशास्त्र | संक्षिप्त में कहा जाये तो हमारे शरीर और मन के ऊपर सकारात्मक-नकापात्मक विचारों की कम या ज्यादा मात्रा के कारण हमारे जीवन में कैसी विषमता, कितनी मात्रा में ? कब होगी ? यह जानने के विज्ञान को ही ज्योतिशास्त्र कहते हैं।

आधुनिक मेडिकल विज्ञान मनुष्य को रोग होने के बाद कई प्रकार के परीक्षण करने के बाद तय करते हैं कि यह रोग हुआ है। जबकि ज्योतिषशास्त्र मनुष्य को जन्म के समय ही किसी भी प्रकार के परीक्षण किये बिना ही कुदरती तत्वों के आधार पर बता देते हैं कि, जातक को कौनसा रोग कौनसी उम्र में होगा ? आने वाली कठिनाइयाँ एवं आने वाले अच्छे समय की जानकारी ज्योतिष शास्त्र के मार्गदर्शन के माध्यम से जानकर आनेवाली मुसीबत या रोगो की पहले से सावधानियाँ रखी जा सकती है। मैं यह नहीं कहता कि ज्योतिषशास्त्र के माध्यम से सभी सुख प्राप्त किये जा सकते हैं, लेकिन ज्योतिषशास्त्र मार्गदर्शन जरूर दे सकता है। जिसकी मदद से मनुष्य पहले से सावधानियाँ बरतकर आगे बढ़ सकता है। इसलिए ज्योतिषशास्त्र किसी का नसीब बदल नहीं सकता, लेकिन नसीब को बदलने में विशिष्ट रुप से सहायक हो सकता है।

योग

आज के आधुनिक युग में विज्ञान ने बहुत सारे संशोधन और आविष्कार के द्वारा जीवन की कायापलट कर दी है। वर्तमान समय में विज्ञान मानवजाति की सुख-सुविधा के लिए नये-नये उपकरणों का सर्जन करता जा रहा है। जिसकी हम या हमारे पूर्वजों ने कभी कल्पना भी न की होगी। लेकिन प्रदूषित वायु, जल और वातावरण के ऊपर इस आधुनिक विज्ञान का दुष्प्रभाव हो रहा है, जिसके कारण आज की युवा पीढ़ियों के शरीर, मन एवं बुद्धि के ऊपर उसका दुष्प्रभाव निश्चित रूप से देखा जा सकता है। आज के युवावर्ग में आत्मविश्वास की कमी देखने को मिल रही है। इसके अलावा शुष्क और निस्तेज आँखें, बेडौल शरीर आदि आधुनिक विज्ञान के द्वारा हो रहे प्रदूषण का ही एक कारण है।

आज हम लोग अपने आपको आधुनिक एवं सुसंस्कृत समझते हैं। क्या सही अर्थ में वह उचित है ? नहीं, यह उचित नहीं हैं। कारण आज हमारे पास सुख-सुविधाओं के लिए भौतिक उपकरण ज्यादा है, फिर भी हम मानसिक रूप से आनंदित तो है ही नहीं। नींद की गोलियाँ, पेट की सफाई के लिए गोलियाँ एवं कई अलग-अलग प्रकार के चूरण और शक्ति एवं स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की स्फूर्तिकारक दवाइयाँ लेते रहते हैं। आज की युवा पीढ़ी का मन नशीले पदार्थ की ओर ज्यादा खींचा चला जा रहा है जिसके कारण संस्कृति और संस्कार का बहुत ही 'दुःखदायक विनाश होता जा रहा है।

मानसिक तनाव से घिरा हुवा मनुष्य क्या हमारी संस्कृति और संस्कार की रक्षा कर पायेगा ? क्या हम विज्ञान और संशोधन को तिलांजली दे सकेंगे ? वास्तव में एसा करना उचित नहीं है, इसलिए वर्तमान के इस आधुनिक युग में शारीरिक एवं मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए शुद्ध चिकित्सा, योग के पास है। योग शरीर के सभी अवयवों को कार्यरत बनाकर आंतरिक एवं बाह्य प्रक्रियाओं के ऊपर शुभ प्रभाव डालता है। योग जीवन के प्रति मनुष्य की दृष्टि एवं विचारों में सकारात्मक बदलाव लाता है।

योग सिर्फ शरीर के अवयवों को कार्यरत बनाकर शारीरिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं के ऊपर शुभ प्रभाव डाले यहाँ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि योग के माध्यम से शाश्वत सुख और आनंद की अनुभूति हो सकती है। सही अर्थों में योग के द्वारा मनुष्य शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होकर परमात्मा की अनुभूति कर सकता है।

योग' शब्द संस्कृत के ‘युज' धातु से बना हुआ है। जिसका अर्थ होता है 'जुड़ना'। मनुष्य की चेतना का आत्मा का सार्वभौमिक चेतना यानि परमात्मा के साथ एक हो जाना। यह योग हमारे भारतीय ज्ञान की पाँच हजार साल से भी पुरानी शैली है। लेकिन वर्तमान समय में योग को सिर्फ शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित बना दिया है। जैसे कि आसन और प्राणायाम तक ही मर्यादित गणना में है। लेकिन वास्तव में योग मनुष्य की अनंत चेतना को प्रकाशित करने का एक गहन विज्ञान है।

महर्षि पतंजलि ने योग के विषय में कहा है कि, "योगश्च चित्त वृत्ति निरोधः।" अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना यानि योग। लेकिन चित्तकी वृत्तियों का निरोध तभी संभव है, जब आपके पास स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन हो। यह चित्त की वृत्तियों के निरोध संदर्भ में महर्षि पतंजलि ने ’अष्टांगयोग’ की रचना की है। अष्टांगयोग यानि आठ प्रकार के योग, जैसे कि - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अष्टांगयोग के माध्यम से शरीर, मन और आत्मा को एक करके परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है।

सामान्य मनुष्य इस शरीर को ही अपना अस्तित्व मानते हैं। इस देह में ही आत्मबुद्धि है एसा समझते हैं लेकिन जब मनुष्य स्वयं को आनंद स्वरुप सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापी आत्मा समझते हैं, तब उसको निरंतर दिव्य आनंद की पूर्णतः अनुभूति होती है, जिसे योग के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि, "योगः कार्येषु कौशलम्।'' अर्थात् योग कार्य सदैव कुशलकतापूर्वक करना चाहिए।

जब मनुष्य की योगसाधना पूर्ण होती है, तब उसमें किसी भी कार्य को करने की कौशल्य शक्ति प्राप्त होती है। वास्तव में मनुष्य में छिपी हुई सुषुप्त शक्ति को जागृत करने में योग सहायक बन सकता है।

प्राणायाम

प्राणायाम एक ऐसा विज्ञान है, जिससे हम हमारे प्राण यानि श्वास के ऊपर संपूर्ण नियंत्रण रख सकते हैं। प्राणायाम शब्द 'प्राण' तथा 'आयाम' इन दो शब्दों से बना है। प्राण को आत्मा भी कहा जाता है। जब आत्मा शरीर में रहती है, तब वह शरीर एवं इन्द्रियों के पिंजरे का अध्यक्ष बनती है; और तब वह 'जीव' कहलाती है। अतएव जीव बनकर आत्मा कर्मफल के साथ संबंधित है।

आजकल मनुष्य विभिन्न प्रकार की आधि, व्याधि और उपाधि में उलझे हुए हैं; जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन में निरंतर दिव्य आनंद का अनुभव नहीं कर पाते हैं। प्राणायाम के माध्यम से प्रकाश के इस ऊपरी आवरण को नष्ट किया जा सकता है। प्राणशक्ति वायु के माध्यम से वहन होकर शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कोषों के भीतर बहती है। यह प्राणशक्ति उचित मात्रा में अगर शरीर के किसी अंग तक न पहुँच पाये तो वहाँ रोग उत्पन्न होता है। यह समझ अनुरक्षित हो, उसके लिए वायु के माध्यम से प्राण अपना कार्य करता रहता है इसलिए प्राण और वायु का संबंध गहन होने के कारण प्राण और वायु शब्द एक-दूसरे के साथ प्रयोग में अत्यंत प्रचलित है। शरीर में प्राण का महत्व समझने के लिए वायु का महत्व समझना जरूरी है।

शरीर में वायु की योग्य स्थिति होने पर प्राणशक्ति शरीर में योग्य प्रमाण में विभाजित होने से मनुष्य नीरोगी बनता है और प्रभावशाली भी बनता है। जिसके कारण आत्मविश्वास भी बढ़ता जाता है। हमारे शरीर में वात, पित्त और कफ़ को मुख्य माना गया है। लेकिन कफ और पित्त भी वायु की सहायता के बिना अपना संचालन सही ढंग से नहीं कर पाता। वायु हमारे शरीर में प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान जैसे पाँच नामों से शरीर के विभिन्न अंगों में रहकर अपना कर्तव्य निभाती रहती है। वह शरीर की उत्कर्ष शक्ति का नियमन करती है, जिसके कारण मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है।

बाहर की हवा के साथ विश्वव्यापी प्राणशक्ति शरीर में दाखिल होकर शरीर की प्राणशक्ति को पोषण देती है। हवा जितनी शुद्ध होगी उतनी प्राणशक्ति वातावरण में से मिलती रहेगी। प्राणायाम के माध्यम से मस्तिष्क के भागों को उचित मात्रा में प्राणवायु मिलने से आधाशीशी जैसे दर्द भी मिट जाते हैं। श्वास-प्रश्वास में फेंफडे अति महत्वपूर्ण अंग हैं। हमारे फेंफड़े बहुत नाजुक एवं पानी से भी हलके होते हैं। फेंफड़े हृदय से आनेवाले अशुद्ध रक्त को शुद्ध करते हैं और शुद्ध रक्त को वापस हृदय में पहुँचाते हैं। सामान्य गति से चलती हुई श्वास-प्रश्वास के दौरान हम लोग 500 क्यूबिक सेन्टीमीटर (सी.सी) जितनी वायु लेते हैं, उसमें से करीबन 150 सी.सी. वायु फेंफड़े के ऊपरी अवयवों में इस्तेमाल हो जाती है और 350 सी.सी. वायु फेंफडों में पहुँचती है। अगर फेंफड़े दुर्बल हो तो वातावरण में से उचित मात्रा में प्राणवायु नहीं ले पाते हैं। परिणाम स्वरूप रक्त के ऊपर शरीर का मुख्य आधार होने के कारण शरीर शक्तिहीन बनता जाता है। सामान्य मनुष्य में फेंफड़ों की जितनी शक्ति होती है उसके सिर्फ तीसरे भाग का इस्तेमाल करते हैं। फिर भी मनुष्य के श्वास-प्रश्वास की गति तीव्र होने से फेंफड़ों को रक्तशुध्धि के लिए पूर्ण अवकाश प्राप्त नहीं हो पाता है। कुदरत ने हमारे फेंफड़ों को अत्यंत लोचदार बनाया है। आपातकाल में गहरी श्वास-प्रश्वास लेने का अनुभव न होने के कारण हमारे फेंफड़े ऐसी सामान्य अवस्था में भी अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं कर पाते हैं। उस समय मनुष्य मूर्छित हो जाते हैं या फिर उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

प्राणायाम की मदद से हमारे फेंफडों की श्वास लेने की शक्ति को 500 सी.सी. से धीरे-धीरे बढ़ाकर 2000 सी.सी. तक पहुँचाया जा सकता है ; प्राणायाम का यही तो रहस्य है। यह अतिरिक्त 1500 सी.सी. वायु पूरक वायु कहलाती है। यह 2000 सी.सी. वायु के अलावा उसके नीचे दूसरी 1500 सी.सी. वायु भी फेंफड़ों में होती है। जिसे विशेष पूरक कहा जाता है। इस तरह प्राणायाम के द्वारा कुल 3500 सी. सी. वायु श्वास-प्रश्वास में ली जाती है और बाहर निकाली जाती है। जिससे फेंफड़ों की शक्ति पूर्णकः विकसित की जा सकती है। प्राणायाम का सही तरीके से अभ्यास करने से मनुष्य की श्वास-प्रश्वास की क्रिया सहज और प्रतिलिपि में होने लगती है ; अंततः हमें आंतरिक रूप से एक तरह की प्रसन्नता और शांति की अनुभूति होती रहती है।

गहरी श्वास लेकर भीतर की ओर या फिर पूर्ण श्वास बाहर छोड़ने के बाद एक मिनिट तक हम श्वास को रोक सकें, तब छाती के आकार में दो से तीन इंच का अंतर हो तो हमारे फेंफड़े नीरोगी है एसा कहा जाता है। प्राणायाम का प्रभाव फेंफड़ों में होता है और फेंफड़ों का प्रभाव रक्त पर होता है। उसका प्रमाण यह है कि, प्राणायाम अभ्यास शुरू करने से पहले हमें रक्त परीक्षण करवाकर, प्राणायाम शुरू किये एक माह के बाद फिर से परीक्षण करवाया जाये तो हमारे रक्त में लाल कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि पायी जायेगी। इस तरह प्राणायाम का नियमित रूप से अभ्यास करते रहने से रक्त शुद्धि होती रहती है जिससे शरीर संपूर्ण रूप से नीरोगी होता है।

ध्यान

वर्तमान युग में सभी भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करके, उसका उपयोग करने के बाद भी मनुष्य पूर्णतः सुख, शांति और परम आनंद का अनुभव नहीं कर पाया है। इस सुख-शांति की खोज़ मनुष्य जीवनपर्यंत करता ही रहता है। मनुष्य कठोर मेहनत और परिश्रम करके धन एकत्रित कर सुख-शांति प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है लेकिन इस भौतिक क्षेत्र में क्षणिक सुख के बाद अशांति का ही अनुभव होता है। हम स्थिर सुख और शांति का अनुभव तभी कर पाते हैं जब हम ध्यान, आत्मज्ञान और ब्रह्मांड में व्याप्त विश्वशक्ति को समझ पाये।

यह विश्वशक्ति पूरे विश्व में फैली हुई है। इस शक्ति के साथ संपूर्ण ब्रह्मांड, ग्रह, नक्षत्र, मनुष्य, पशु, परमाणु आदि सभी जुड़े हुए हैं। यह विश्वशक्ति सभी और मौजूद है। विश्वशक्ति का यह बंधन पूरे विश्व को व्यवस्थित रखता है। यह विश्वशक्ति जीवनशक्ति है, दिव्यशक्ति है। यह विश्वशक्ति हमारे जीवन के लिए, संचालन के लिए एवं चेतना के लिए बहुत ही जरूरी है। विश्वशक्ति की हमें शारीरिक व मानसिक आदि सभी कार्यो में जरूरत पड़ती है। गहन निंद्रा में और मौन के दौरान हमें सीमित मात्रा में प्राणशक्ति प्राप्त होती है। इस शक्ति का हम दिनभर के कार्यों में इस्तेमाल करते हैं। जैसे कि, बोलना, चलना, सुनना, देखना, सोचना आदि। अर्थात शरीर के सभी कार्यों में हम विश्वशक्ति का उपयोग करते हैं।

यह थोड़ी-सी विश्वशक्ति हमें गहरी निंद्रा के दौरान प्राप्त होती है ; जो दिनभर के सभी कार्यों के लिए पर्याप्त नहीं है। जिसके कारण थक जाना, चिंताग्रस्त रहना, झंझटों में फँस जाना एवं बीमार हो जाना जैसी कई प्रकार की परेशानियों में फँस जाने है। इन सभी समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए हमें निरंतर विश्व स्तरीय ऊर्जा का मिलते रहना अनिवार्य है। हमारे शरीर का संतुलन बनाये रखने के लिए, सुखी एवं स्वस्थ जीवन जीने के लिए, ज्ञान प्राप्ति के लिए और अंत में आत्मसाक्षात्कार करने के लिए भरपूर मात्रा में ऊर्जाशक्ति का मिलते रहना जरूरी है और यह वैश्विक ऊर्जा सिर्फ ध्यान के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है।

ध्यान का अर्थ :
"मैं कर्ता हूँ, मैं उपभोकता हूँ, यह भाँतिजन्य भाव, जिसका त्याग करके आत्मस्वरूप में चित की वृत्तियों को स्थित करना, इसे ध्यान कहते हैं।"

ध्यान के माध्यम से शरीर रूपी घर में आत्मज्ञान का दीपक प्रज्वलित होता है। इस तरह सभी प्रकार से दृष्टा बनकर मन को आंतरिक दर्शन के लिए स्थिर करना 'ध्यान' कहलाता है। ध्यान की एक आत्मा को परमात्मा में स्थिर करने की एक तरह की पद्धति है। ध्यान की यह अवस्था चैतन्य व जागृति की अवस्था है और उसमें हमारा मन अंर्तध्यान हो जाता है; जिससे बाह्य वस्तुओं के विचार नहीं आते हैं और धीरे-धीरे विचारों का प्रवाह थम जाता है। जिससे मानसिक तनाव कम होने लगता है। तब हमें आत्मा से प्रसन्नता और शांति की अनुभूति होने लगती है।

कई लोगों की शिकायत रहती है कि ध्यान में चित - एकाग्र नहीं हो पाता है। आँखें बंद करके जब हम बैठते हैं तब कई प्रकार के विचार आने लगते हैं और मन इधर-उधर भटकने लगता है। इसके संबंध में श्रीमद् भगवद्गीता के छठे अध्याय में 'ध्यानयोग' के विषय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था; तब अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण को प्रश्न किया था कि, हे श्रीकृष्ण ! मन चंचल व्याकुल करने वाला बलवान और प्रबल है। इसे वश में करना अति दुष्कर है ऐसा मेरा मंतव्य है। तब भगवान श्रीकृष्णने उत्तर दिया था; हे महावाहो ! वास्तव में मन चंचल है और उसे वश में करना अति कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसे अवश्य वश में किया जा सकता है। इस तरह यह बात सच है कि मन चंचल होने के कारण ध्यान करते समय हमारे विचार संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। लेकिन निरंतर ध्यान का अभ्यास करते रहने से विचारों का प्रवाह धीरे-धीरे कम होने लगता है और बुद्धि स्थिर होती जाती है; जिसके कारण परम शांति की अनुभूति होने लगती है।

ध्यान करते समय अपने शरीर को स्थिर रखें, बिलकुल भी ना हिलायें एवं शरीर और मन में जो भी भाव उत्पन्न हो रहा है उसे तहस्य रूप से जागृत अवस्था में सावधान होकर, जो 'अनुभव हो रहा है, जो भी कुछ प्रतीत हो रहा है, उसे किसी भी प्रकार की कल्पना किये बिना, किसी भी प्रकार की आकांक्षा की अनुभूति किये बिना दृष्टा भाव से देखते रहें। ध्यान से हमारे मन की एकाग्रता बढ़ती है। ध्यान से मिलने वाली ये शक्तियाँ ज्ञान प्रदान करने वाली होती हैं। ध्यान को अपने जीवन में स्थान देने से निरंतर नई चेतना का संचार होता मालूम पड़ेगा और अंग-अंग में प्रसन्नता फैलती जाएगी।

आयुर्वेद

स्वस्थ और आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से निरोगी रहना अनिवार्य है। जिसके कारण ही योगसाधना में आसन-प्राणायाम को शामिल किया गया है। जिससे साधना के दौरान शरीर और मन का स्वास्थ्य बरकरार रहे ; लेकिन शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आसन-प्राणायाम के अलावा आयुर्वेद का महत्व भी कुछ कम नहीं है। आयुर्वेद सिर्फ चिकित्सा विज्ञान या औषधि का शास्त्र नहीं है; लेकिन मनुष्य किस तरह नीरोगी रहकर अपनी आयु को बढ़ा सकता है इस बात का ज्ञान प्रदान करने वाला शास्त्र है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य की रक्षा किस तरह करनी चाहिए और रोगी मनुष्य अपने विकार को किस तरह दूर करके स्वस्थ रह सकता है इस बात का ज्ञान प्रदान करता है। जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति सिर्फ रोग का दमन करती है।

यह आयुर्वेद शास्त्र हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की तरफ से मिली हुई अनमोल भेंट है। आयुर्वेद का सृजन करीबन ईसा पूर्व पाँच हजार से पचास हजार वर्ष पूर्व हुआ होगा। क्योंकि पुराण के तत्त्वविदों के मतानुसार ऋएवेद अति प्राचीन ग्रंथ है। करीबन 90 हजार वर्ष पूर्व का; इसका अर्थ हुआ कि वैदिक संस्कृति की शुरूआत करीबन 90 हजार वर्ष पहले हुई होगी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का उपयोग करीबन 50 हजार वर्ष पूर्व से होता आया होगा। कारण, आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद भी कहा गया है।

यह आयुर्वेद आयु एवं रोगों का ज्ञान प्रदान करने वाला शास्त्र है। शरीर इन्द्रियों, मन और आत्मा का नाम आयु है। प्राणयुक्त शरीर को जीवित कहते हैं। आधुनिक शब्द में कहा जाये तो यही जीवन है। आयु और शरीर का संबंध तो सनातन है। आयुर्वेद में इस विषय पर विचार किया गया है। आयुर्वेद मनुष्य को स्वस्थ जीवन जीने की विधि एवं उपाय दर्शाता है। आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धति की तरप सिर्फ एक पद्धति मात्र नहीं है; लेकिन पूर्ण नीरोगी रहने का पूर्ण आयुष्य ज्ञान है। पथ्य आहार का सेवन और अपथ्य आहार का त्याग करने से मनुष्य पूर्णरूप से स्वस्थ रह रकता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के परम लक्ष्य-धर्म, अर्थ, काम जैसे माध्यमिक पुरूषार्थ अच्छी तरह से निभाकर श्रेयकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसलिए चार पुरुषार्थ को उचित रूप से न्याय देने और सार्थक बनाने के लिए स्वस्थ शरीर का होना बहुत जरूरी है। इसलिए सभी तरह से विशेष रूप शरीर की हमें रक्षा करनी चाहिए।

आयुर्वेद का पूर्ण विवरण प्रमुख रूप से चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता में किया गया है। काल परिवर्तन के साथ निदानात्मक और चिकित्सकीय अनुभव को लेखकों ने अपने परिप्रेक्ष्य और विचार के अनुकूल समझकर संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध किया है।

संसार में एसा कोई मनुष्य नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह सभी को होती है लेकिन सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए आवश्यक है कि शरीर विकार रहित हो। इसके लिए आयुर्वेद शास्त्र को प्राचीन काल से ही विशेष महत्व दिया गया है। आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं रोगों के विकार का शमन करना है। हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम जैसे पुरुषार्थ और मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से मिल सकती है। इसलिए हमारे ऋषिमुनियों ने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ-साथ शरीर के शुद्धिकरण एवं स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ध्यान दिया है।

आधुनिक काल में जीवन की शैली बदलने से और आहार-विहार में परिवर्तन आने से देश में करीबन 50 से 55 प्रतिशत मृत्यु 60 साल की उम्र में होती देखने को मिल रही है ; जिसको कृत्रिम कहा जाता है। प्राचीन काल में रोगों की मात्रा कम होने के अलावा आयु लम्बी होती थी। इस तरह का जीवन जीने के लिए हमारी जीवनशैली में कुछ बदलाव लाने से सरलतापूर्वक दीर्घ और सुखमय आयुष्य प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए हमें पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकारण करने की जरुरत नहीं है। शरीर के भीतर होने वाली सभी समस्याओं का निराकरण शास्त्र में किया गया है।

बालशिक्षा

आज-कल माता-पिता के लिए सबसे गंभीर प्रश्न अपने संतान की शिक्षा का है। वर्तमान समय में शिक्षित बालक को देखकर माता-पिता की चिंता बढ़ती जा रही है। इस वजह से आज के बच्चे दुराग्रही बनते जा रहे हैं। आधुनिक काल में बालक निरंकुशता, कपट,स्तेय (चोरी), व्यभिचार, आलस्य, प्रमाद आदि दोषों के शिकार हो रहे हैं और इन सबका कारण है लोग वर्तमान शिक्षा प्रणाली - पाश्चात्य शिक्षण एवं आसपास के वातावरण को दोषी करार देते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि, हमें अपने बच्चे को आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा देनी जरूरी है | बच्चों को मशीन बनाने की बजाय मनुष्य बनाना अति आव्शयक है। हमारे शास्त्रों में कई वर्ष पूर्व इसके बारे में गहन चिंतन किया गया है। हमारे प्राचीन ऋषिगणों ने इसी वजह से ही बालशिक्षा को महत्त्वपूर्ण बताकर उसके ऊपर विशेष ध्यान केन्द्रित किया है। बालशिक्षा में मुख्य सात बातों को शास्त्रों में प्राण के समान समझकर उसका अनुकरण करने का आग्रह किया है।

सदाचार -
जो आचरण हमापे लिए और संसार के अन्य लोगों के लिए हितकारी है अर्थात मन, वचन और शरीर के माध्यम से की गई जो भी उत्तम क्रिया है वह सद् आचरण है। बाल्यावस्था से ही मनुष्य को आचरणशुद्धि और विचारशुद्धि का ज्ञान मिलता रहे यह बहुत जरूरी है।

संयम -
मन, बुद्धि और इन्द्रियसंयम की आवश्यकता मनुष्य के जीवन में बहुत ही जरूरी है, और जो इस संयम में न रह पाये तो मनुष्य का पतन निश्चित है। अतः विषयों के संसर्ग के प्रति संयम होना अत्यंत आवश्यक है। विषय भोगों को नाशवंत क्षणभंगुर एवं दुःख स्परूप समझकर जहाँ तक संभव हो उसका त्याग करना संयम है। बालशिक्षा में वाणी आदि इन्द्रियों और उसके बाद मन के ऊपर संयम रखने पर शास्त्र में बल के साथ कहा गया है।

ब्रह्मचर्य -
सभी प्रकार के मैथुन का त्याग यानि ब्रह्मचर्य | बच्चों के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना सबसे पहला कर्तव्य है। उससे बल, बुद्धि, तेज, सद्गुण एवं सदाचार की वृद्धि होकर परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है।

विद्या -
विद्या से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन अपने कल्याण के इच्छुक मनुष्य को विशुद्ध रूप से वेद, शास्त्र और ईश्वर के तत्त्व को जानने के लिए ही अभ्यास करना चाहिए। यह विद्या कामधेनु और कल्पवृक्ष की तरह फल प्रदान करने वाली है। ज्ञान विद्या का ही नाम है और ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। बाल्य अवस्था में ही शास्त्र, संस्कार एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त हो यह अति आवश्यक है।

माता-पिता आदि -
शास्त्रों में कहा गया है कि, "एक सुसंस्कृत माता सौ अध्यापक के समान है।" हमारे शास्त्र में माता-पिता एवं आचार्य को त्रिलोक, त्रिवेद और देवता माना गया है। इन सबकी सेवा ही परम धर्म है। सौ शिक्षक के समान एक 'माँ' है। बच्चों के जीवन के पुनरूत्थान में माँ-बाप के प्रति श्रद्धा, भक्ति और विनय के श्रेष्ठ दृष्टांत के रूप में शास्त्रों में देखने को मिलते हैं।

गुरूजनों की सेवा -
हिन्दू संस्कृति में गुरू को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। ब्रह्मनिष्ठ गुरू मनुष्य को संसार समंदर में से योग्य ज्ञान, मार्गदर्शन एवं योग के द्वारा आत्मकल्याण की ओर खींचकर ले जाता है। गुरू का कार्य शिष्य को जिस पथ का ज्ञान न हो उस पथ के ऊपर ज्योति समान ज्ञान फैलाकर अपने लक्ष्य प्राप्ति तक ले जाना है।

ईश्वरभक्ति -
परमात्मा का नाम, स्वरूप, गुण, चरित्र, प्रेम, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यों से भरी बातें श्री मुख से सुनकर या फिर सद्ग्रंथों में से पढ़कर बच्चों को इश्वर भक्ति की और मोड़ना उचित है। इश्वर भक्ति ही सभी के लिए उत्तम पथ है।

स्त्री सशक्तिकरण

संस्कृति, समाज और परिवार का प्रतिरूप यानि 'स्त्री'। हमारी भारतीय संस्कृति में नारी का बहुत महत्त्व है और उसका कार्य, कर्तव्य और धर्म भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। स्त्री से ही संस्कृति और स्त्री से ही संस्कार है। कुटुंब से लेकर राष्ट्र की प्रगति का सभी समर्थन स्त्री के ऊपर ही निर्भर है। जिस घर में सुसंस्कारी, धर्मचारिणी व सहचारिणी स्त्री होती है; उसमें देवता निवास करते हैं।

नारी समर्पण, सहनशीलता, साहसयुक्त, सद्गुणों से प्रचूर एवं उत्तम राष्ट्र का निर्माण करने वाली है। इसलिए उसका पवित्र व चरित्रवान होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि स्त्री के पास जो कोई किमती आभूषण है तो वह उसका चरित्र है। नये समाज का सृजन करने में, राष्ट्र को सक्षम, बलवान एवं संस्कारी बालक देने में, संस्कृति की सुरक्षा के लिए और राष्ट्र को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए स्त्री की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बनाये रखकर अपना धर्म और अपनी जिम्मेदारी को समझना यह संस्कारी स्त्री के सद्गुण है। सिर्फ जन्म देने से स्त्री माता नहीं बन जाती; मातृत्त्व गुण विकसित हो और बच्चों मे शुभ संस्कारों की सिंचाई करें एवं अपने बच्चे तो राष्ट्र हित के लिए राष्ट्र की रक्षा के लिए सक्षम बनाये वही स्त्री पूर्ण माता बनती है, यह यथार्थ है।

अपने बच्चों को कैसा बनाना यह स्त्री के हाथों में है। गर्भावस्था के दौरान शास्त्रों का, धार्मिक पुस्तकों का एवं महान विभूतियों - महात्माओं के बारे में पठन- श्रवण करना चाहिए क्योंकि बच्चों का महत्तम मानसिक विकास गर्भ में ही होता है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी परमात्मा ने स्त्री को निरूपित की है। इस जिम्मेदारी को समझकर उसका विवेकपूर्ण अनुसरण करना अति आवश्यक है। स्त्री को पुत्री, बहन, पत्नी, वधु, माता, सासु आदि की पूर्ण जिम्मेदारी एवं कर्तव्यपालन करके अपने धर्म का निःस्वार्थ भाव से आचरण करना चाहिए ; और हमारे राष्ट्र का सम्मान बनाये रखना चाहिए।

पुरुषों के मुकाबले स्त्रियाँ ज्यादा गुणसंपन्न और सचरित्र से युक्त रही हैं। इसी सद्गुण के कारण स्त्रियों को 'देवी' नाम से संबोधित करने की परंपरा हमारी संस्कृति में है। हमारे राष्ट्र, धर्म, संस्कृति तथा नैतिकता की सर्वोपरिता का अधिकांश श्रेय हमारी माताओ व बहनों एवं पुत्रियों के हिस्से में जाता है। स्त्रियाँ सदैव पुरुषों के लिए प्रेरणा रुप एवं प्रकाश रूप रही है। जिसके कारण नारी को शक्ति का प्रतीक माना गया है। नारी स्नेह व सौजन्य की देवी है, पुरुष की निर्मात्री है। किसी भी राष्ट्र का उदय नारी जाति के उत्थान एवं संस्कार पर आधारित होता है।

आज के आधुनिक युग में स्त्रियाँ जिस तरह जी रही हैं; वह शास्त्रों के वचनों से बिलकुल विपरीत है। उसमें से आध्यात्मिकता विलुप्त होती जा रही है। अपने धर्म और कर्तव्य से वह बहुत दूर जा चुकी है। पुरुष के समान बनने के लिए अपने संस्कारों का विसर्जन करते हुए भी हिचकिचाती नहीं है, उसमें पवित्रता का अभाव दिखता है। आज की स्त्री की यह भौतिक सुख पीछे की अंधी दौड़ के कारण वह अपने बच्चों के लिए पर्याप्त मात्रा में समय नहीं दे पाती। जिसके कारण संतानों को जो संस्कार बचपन में मिलने चाहिए उससे वह वंचित रह जाते हैं। संस्कारहीन बालक से समाज व राष्ट्र का उत्थान किस तरह हो सकता है।

परमात्मा ने स्त्री को एक सद्भुत शक्ति प्रदान की है ; वह है सर्जनात्मक शक्ति। इस शक्ति के कारण ही स्त्री को ईश्वर की उत्तम कृति कहा जाता है। जरूरत है तो बस उस शक्ति को पहचानने की। स्त्री के पास यह एक ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से समाज को जिस दिशा में ढलना हो उस दिशा में ढाल सकते हैं। आज पुनः हमारे देश को जरुरत है ; गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, माँ शारदादेवी, माँ जीजाबाई, रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गाबाई, माता अनसूया की तरह धर्म निभाने वाली और समाज व राष्ट्र का उत्कर्ष करने वाली स्त्री की। हमारी संस्कृति एवं राष्ट्र को आगे लाने के लिए, राष्ट्र को उत्तम पद प्राप्त कराने हेतु स्त्री को फिर से वैदिक स्त्री के रूप में आने की जरुरत है।

विचारशील स्त्रियाँ स्वयं राष्ट्र के निर्माण में उत्कृष्ट योगदान दे सके इसके लिए नारियों को संस्कार और संस्कृति के ज्ञान द्वारा प्रोत्साहित करना चाहिए। स्त्री के भीतर परमात्मा ने भरपूर शक्ति का सृजन किया हुआ है ; जिससे वह राष्ट्र और संस्कृति को प्रकाशित करने में सक्षम है। आवश्यकता है बस उस शक्ति को जागृत करने की और सकारात्मक विचार के साथ हर एक परिस्थिति में आगे बढ़ने की।

संशोधन विभाग

वैदिक संस्कृति ज्ञान के साथ संबंधित संस्कृति है। इस विज्ञान को हमारे ऋषिगण ने उपनिषद, श्रीमद् भगवद्गीता, पुराण एवं वेद जैसे शास्त्रों को धार्मिक परंपरा के माध्यम से मनुष्य के समक्ष रखा है। जिसका मुख्य कारण है कि, सामान्य से सामान्य मनुष्य भी इस ज्ञान को समझकर उसका अनुकरण कर सके। हजारों वर्ष पूर्व ऋषिगण ने ग्रहों, नक्षत्रों एवं ग्रहण के बारे में सिर्फ संशोधन ही नहीं बलकि इसके मनुष्य के जीवन पर होने वाले प्रभाव का भी वर्णन किया है। इसके अलावा आयुर्वेद, नाड़ीशास्त्र, योगशास्त्र, ज्योतिशास्त्र एवं वेद जैसे शास्त्रों का भी सृजन किया है। इन सभी शास्त्रों के पीछे ठोस वैज्ञानिक दृष्टिकोण जुड़ा हुआ है। इन शास्त्रों की रचना के पीछे ऋषिगणों का उद्देश्य सिर्फ आत्मकल्याण ही था। इन शास्त्रों पर वर्तमान में भी कई सारे संशोधन हो रहे हैं और शास्त्रों के अभ्यास द्वारा कई वैज्ञानिक रहस्य भी जानने को मिले हैं।

इन शास्त्रों के ऊपर योग्य अभ्यास और ज्यादा गहन संशोधन करके मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी एवं सही दिशा दी जा सकती है। लेकिन वर्तमान समय में ऋषिमुनियों द्वारा रचित शास्त्रों का अधूरे ज्ञान के साथ व्यापारीकरण हो रहा है वह हमारी संस्कृति के लिए बहुत ही दुःखद और भयभीत साबित हो सकता है। वर्तमान में कथित तौर पर धर्मगुरू के द्वारा शास्त्र को कथा या वार्ता के रूप में बनावटी हास्य के साथ मनुष्य के सामने रखा जाता है, जिसकी वजह से संस्कृति और शास्त्र हँसी के पात्र बन रहे हैं। इसके पीछे का कारण सिर्फ वैभवविलास और प्रतिष्ठा की लालसा रखने वाले कथित धर्मगुरुओं के ही अधीन है। इन कथित गुरुओं का उद्देश्य मनुष्य के कल्याण का नहीं बलकि मनुष्य को गुमराह करके अपने नीजि स्वार्थ को सिद्ध करने का रहा है। जैसे भी हो अपना एक विशाल समुदाय खड़ा करके अपनी जरुरतों की पूर्ति करके भौतिक सुख प्राप्त करने का रवैया है। जिसके कारण वैदिक संस्कृति विनाश की ओर जा रही है। यह विनाश तभी रुक सकता है जब सभी मनुष्यों को संस्कृति के बारे में सही ज्ञान प्राप्त हो।

हमारी संस्कृति को विनाश की ओर ले जाने में अपने आपको बौद्धिक एवं आधुनिक अभिगम साबित करने वाला दूसरा समुदाय भी उत्तरदायी बन रहा है। अपने आपको बुद्धिजीवी मानने वाले वर्तमान के हास्यास्पद कथित गुरू के द्वारा दिये गये ज्ञान की निंदा एवं टीका - आलोचना करके अपनी-अपनी राय दे रहे हैं। लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी शास्त्रों का गहन अभ्यास नहीं किया है एवं उसे जानने का प्रयास भी नहीं किया है। जिसके कारण शास्त्र में छिपे हुए सत्य रहस्य हमारे सामन नहीं आ पाये हैं। इसके पीछे कथित धर्मगुरु और अपने आपको बुद्धिजीवी मानने वाले समुदाय ही उत्तरदायी है।

हमारे ऋषिगण ने वैभव-विलास को ठुकराकर सरल व एकांत जीवन जी कर, योग और तपस्या से ज्ञान संपादन कर लोगों के समक्ष रखा था। लेकिन समय बीतने पर इन शास्त्रों में छिपे हुए रहस्य लुप्त होते गये। इन शास्त्रों में छिपे गूढ़ रहस्य एवं गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक ऐसी संस्था या फिर एक ऐसे समुदाय की जरुरत है जो इस शास्त्र में छिपे हुए रहस्य व ज्ञान को जानकर व समझकर लोकहित हेतु सबके समक्ष रख सके; ताकि हमारे जीवन को सुखी एवं सार्थक बनाया जा सके। इसके लिए ’आत्मदर्शन चेरीटेबल ट्रस्ट' के द्वारा एक संशोधन विभाग तो तैयार किया जाएगा एवं नई पीढ़ी को शास्त्र का ज्ञान देकर, कुशल बनाकर शास्त्र के पीछे छिपे हुए वैज्ञानिक रहस्य को जानकर लोगों के समक्ष रखा जाएगा।